पुर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने, सदावसन्तं गिरिजासमेतं ।
सुरासुराराधित्पाद्य्पद्मं, श्री बैद्यानाथं तमहं नमामि ।।
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बाबा वैद्यनाथ धाम Image Source - Google Image by Wikipedia |
क्या है पंचशूल और क्यों है उसका महत्व
मान्यता है की पंचशूल अजेय शक्ति का स्रोत है। अनेक धार्मिक ग्रन्थ वर्णन करते है कि भगवान शंकर ने अपने प्रिय शिष्य शुक्राचार्य को पंचवक्त्रम निर्माण की विधि बताई थी, जिनसे फिर लंका के राजा रावण ने इस विद्या को सिखा था। असुर राज रावण ने लंका के चारों कोनों पर पंचशूल का निर्माण करवाया था, जिसे राम रावण युद्ध में भगवान श्रीराम को तोड़ना मुश्किल हो रहा था । जिससे लंका विजय में विलम्ब हो रहा था तथा श्रीराम अपना धैर्य खो रहे थे। तब विभिषण के श्री मुख से इस रहस्य का ज्ञान भगवान श्रीराम को हुआ और जिसको ध्वस्त करने का विधान ऋषि अगस्त से जान कर श्री राम ने पंचशूल का निदान किया तथा अभेद लंका पर विजय प्राप्त की।
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पंचशूल Image Source - Google by asianetnews.com |
त्रिशूल को भगवान शिव का अस्त्र कहा जाता है, परंतु यहां पंचशूल है, जिसे सुरक्षा कवच के रूप में मान्यता है। सभी ज्योतिर्लिंगों के मंदिरों के शीर्ष पर ‘त्रिशूल’ है, परंतु बाबा बैद्यनाथ के मन्दिर में ही पंचशूल स्थापित है। जिसे रावण द्वारा मन्दिर की सुरक्षा के लिए स्थापित किया गया था। पंचशूल सुरक्षा कवच के कारण ही इस मंदिर पर आज तक किसी भी प्राकृतिक आपदा का असर नहीं हुआ है।
पंचशूल भगवान शिव के रुद्र स्वरुप जिनके पांच मुख हैं के प्रतीक रुप में भी पूजित है। कई धर्माचार्यो का मानना है कि पंचशूल मानव शरीर में मौजूद पांच विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह व ईष्र्या को नाश करने का प्रतीक है ।
पंचशूल की महत्ता का ज्ञान ऐसी सेहोता है कि यहां आने वाले भक्तगण यदि बाबा के ज्योतिर्लिंग के दर्शन किसी कारणवश न कर पाए, तो मात्र पंचशूल के दर्शन से ही उन्हें समस्त पुण्य कर्मो के फल की प्राप्ति हो जाती है।
मुख्य मंदिर में स्वर्ण कलश के ऊपर लगे पंचशूल सहित यहां ज्योतिर्लिंग मन्दिर परिसर के अन्य सभी २१ मन्दिरों पर लगे पंचशूलों को साल में एक बार शिवरात्रि के दो दिन पूर्व पूरे विधि-विधान से नीचे उतारा जाता है और सभी को एक निश्चित स्थान पर रखकर विशेष पूजा कर फिर से उनके मूल स्थान पर स्थापित कर दिया जाता है।इन दिनों में भगवान शिव और माता पार्वती का गठबंधन को भी हटा दिया जाता है। पंचशूल को मन्दिर से नीचे लाने और फिर ऊपर स्थापित करने का अधिकार स्थानीय एक ही परिवार को प्राप्त है ।
मन्दिर के नाम के पीछे की कथा तथा मन्दिर का महत्व
एक बार राक्षसराज रावण ने अजेय बनने के लिए भगवान शिव की तपस्या इस मन्दिर में की तथा भगवान शिव को अपने दसों शीश एक एक करके चढ़ा दिए जिससे प्रसन्न भगवान आशुतोष कैलाश छोड़ भक्त की भक्ति का मान रखने के लिए प्रकट हुए तथा उन्होंने घायल बिना शीश के रावण को एक वैद्य की भांति पहले जैसा कर दिया। चूंकि भगवान शिव ने यह कार्य एक वैद्य की तरह किया था इसलिए इस ज्योतिर्लिंग का नाम वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पड़ा।
बड़ी रोचक हैं शिवपुराण में वर्णित मन्दिर की कथा
बात त्रेता युग की है,जब रावण जैसा भगवान शिव का अनन्य भक्त इस पूरी सृष्टि में नहीं था। रावण की राजसभा में यूँ तो सारे देवता अपने हाथ जोड़े उसकी सेवा किया करते थे परन्तु एक दिन उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ यदि उसके आराध्य भगवान सदाशिव भी उसकी लंका में आ जाये तो लंका अजेय हो जाएगी तथा उसे उसके भगवान शिव के दर्शन प्रतिदिन उसकी राजधानी में ही हो जाया करेंगे। ऐसा विचार आते है वह भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत पर जा पहुंचा। वहां उसने भगवन शिव की उपासना की तथा उन्हें प्रसन्न कर लिया तथा वरदान में उन्हें कैलाश चलने का वचन माँगा। भगवान शिव ठहरे भोलेनाथ भक्त को कैसे मना करते। परन्तु जानते थे की यदि वह लंका पहुंच गए तो लंका उनके इष्ट भगवान श्रीराम के लिए भी अजेय हो जाएगी। परन्तु रावण को मना भी कैसे करते उन्होंने रावण के साथ चलना तो स्वीकार किया परन्तु एक शर्त भी रख दी कि उनका लिंग स्वरुप लेकर रवां को कैलाश ने लंका जाना होगा परन्तु वह उसे कहीं भी धरती पर नहीं रखेगा अन्यथा वह वही पर स्थित हो जायेगा। शिव के रवां को इस प्रकार वरदान देने से देवगण तथा सिद्ध मुनि गण चिंतित हो गए तथा उन्होंने माता पार्वती की शरण ली तथा प्रभु को किसी भी प्रकार से लंका जाने से रोकने की याचना की।
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रावण द्वारा लाये गए शिवलिंग को स्थापित करता बालक |
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शिव गंगा कुण्ड |
कुछ कथाओं में भगवान गणेश के स्थान पर भगवान विष्णु का बालक रूप में भगवान शिव को रोकने के लिए किये गए प्रयास का वर्णन किया गया है। भगवान विष्णु के बालक रूप का नाम बैजू था इसलिए इस शिवलिंग का नाम वैद्यनाथ पड़ा।
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग इतिहास के पन्नों में
ऐतिहासिक पन्नों में अन्तिम गुप्त सम्राट आदित्यसेन गुप्त ने आठवीं शताब्दी में इस क्षेत्र में शासन करते थे। उनके शासनकाल में यह तीर्थ स्थल को प्रसिद्धी प्राप्त हुई। अकबर के नव रत्न मानसिंह को इस स्थल में विशेष रुचि थी। अतः उन्होंने एक कुण्ड का निर्माण करवाया जिसे मानसरोवर कुंड के नाम से भी जाना जाता है। मन्दिर में लगे शिलालेखों से ज्ञात होता है मन्दिर के जीर्णोद्वार का कार्य गिद्दौर के पूरणमल ने करवाया था।
१८वीं शताब्दी में गिधौर के महाराजा को वीरभूम के नवाब से युद्ध करना पड़ा। इसके बाद मुख्य पुजारी द्वारा बीरभूम के नवाब को प्रतिमाह एक निश्चित राशि प्रदान करनी पड़ती थी जिसके फलस्वरूप मन्दिर का प्रबंधन पुजारी को सौप दिया जाता था। कुछ काल तक बीरभूम के नवाब ने मन्दिर पर शासन किया परन्तु जल्द ही गिधौर के महाराजा ने पुनः अपनी शक्ति को केंद्रित कर नवाब को पराजित कर पुनः अपना साम्राज्य स्थापित किया।
प्लासी के १७५७ में हुए युद्ध ने ईस्ट इंडिया कम्पनी का ध्यान बाबा वैद्यनाथ पर केन्द्रित हो गया तथा उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी कीटिंग को पहले कलेक्टर के रूप में यहाँ भेजा। जिसने वैद्यनाथ धाम मर पुजारी के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप को बलपूर्वक बंद करवा दिया तथा वैद्यनाथ मंदिर के समस्त अधिकार सर्वोच्च पुजारी को दे दिए गए।
वैद्यनाथ मन्दिर की संरचना
मन्दिर परिसर को तीन भागों में विभक्त किया गया है - प्रवेश द्वार, मध्य भाग और मुख्य मन्दिर भवन। ७२ फीट ऊँचे इस मन्दिर का मुख पूर्व दिशा की ओर है। मन्दिर के शिखर पर तीन सोने के कलश, जिन्हें गिधौर के महाराजा द्वारा मन्दिर को दान किया गया था। इन कलश के ऊपर पंचशूल स्थापित है।
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मुख्य गर्भगृह में स्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग |
मन्दिर परिसर में मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त पराशक्ति देवी पार्वती, काली, काल भैरव और लक्ष्मीनारायण को समर्पित २१ अन्य सुन्दर मन्दिर है।
वैद्यनाथ मन्दिर में की जाने वाली दैनिक पूजा
एक सामान्य दिवस पर भगवान शिव के परम धाम वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मन्दिर के पट प्रातः ४:०० बजे पुजारी के द्वारा खोले जाते है। जिसके बाद पुजारियों द्वारा प्रधान पुजारी के सानिध्य में षोडशोपचार पूजा की जाती है। स्थानीय भाषा में इसे सरकारी पूजा भी कहा जाता है। इसके बाद भक्त शिवलिंग की पूजा अर्चना करते है तथा शिवलिंग पर श्रद्धा अनुसार जल, दूध और विल्व पत्र अर्पित करते है। पूजा की यह रस्में दोपहर ३:३० बजे तक चलती है। इसके बाद मन्दिर के कपाट भगवान के दिवस विश्राम के ३:३० पर बंद किये जाते है तथा शाम ६:०० बजे फिर से खोला जाता है और पूजा की प्रक्रिया पुनः प्रारम्भ की जाती है। इस समय श्रृंगार पूजा होती है तथा रात्रि पूजा व आरती के साथ रात्रि ९:०० बजे मन्दिर के पट भगवान के रात्रि विश्राम के लिए बंद किये जाते है।
👉 विशेष दिवस जैसे महाशिवरात्रि, श्रावण आदि पर मन्दिर के समय में बदलाव किये जा सकते है। जिसके सभी अधिकार मन्दिर प्रशासन के पास सुरक्षित है।
श्रावण माह में होने वाली कांवड यात्रा का महत्व
श्रावण का महीना भगवान शिव को समर्पित माह है, जिसमे भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए भक्तों द्वारा नाना प्रकार के उपाय किये जाते है। इस पवित्र माह में होने वाली कांवड यात्रा का बहुत महत्व है क्योंकि माना जाता है जो कांवडिया ( जो कांवड लेकर चलता है ) पूरी श्रद्धा से कांवड यात्रा के नियमों का पालन करता है और सुल्तानगंज में प्रवाहित गंगा का जल लाकर भगवान वैद्यनाथ का जलाभिषेक करता है उस पर भगवान भोलेनाथ की कृपा सदा बानी रहती है। भगवान वैद्यनाथ का जलाभिषेक करने के बाद वासुकीनाथ के दर्शन करने की प्रथा है। मान्यता है बिना वासुकीनाथ के दर्शन किये भगवान वैद्यनाथ की दर्शन यात्रा पूरी नहीं होती है।
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कांवड यात्रा |
1 टिप्पणियाँ
Great👍
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