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अष्टविनायक

संस्कृत भाषा में अष्टविनायक का शाब्दिक अर्थ आठ गणेश होता है। हिन्दू धर्मानुसार भगवान श्री गणेश संगठन, समृद्धि, ज्ञान और विघ्न हरण के देवता है। अष्ठविनायक तीर्थ यात्रा महाराष्ट्र राज्य में उपस्थित भगवान श्री गणेश के क्रमानुसार प्रसिद्ध आठ मंदिरों की दर्शन करने की यात्रा है, जो की पुणे शहर के आस पास स्थित है। यह प्रसिद्ध आठ मंदिरो की अपनी मूर्ति और मंदिर भवन की अपनी ही एक अलग कथा और इतिहास है।  भगवान श्री गणेश की सूंड की मुद्रा और मूर्ति की बनावट प्रत्येक मंदिर मे एक दूसरे से भिन्न है। यूं तो पूरा महाराष्ट्र ही भगवान श्री गणेश के मंदिरो और उनके भक्ति विश्वास के लिए जाना जाता है, परन्तु इन अष्टविनायक के दर्शन की अपनी ही धर्म परम्परा है, जिसे सारे संसार मे एक अलग ही स्थान प्राप्त है।  

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ऐसा विश्वास है की पुनः प्रथम ( जिस मंदिर से यात्रा का प्रारम्भ हुआ है ) मंदिर के दर्शन करने से ही तीर्थ यात्रा पूर्ण मानी जाती है।  

यह अष्ट देव स्थान क्रमानुसार इस प्रकार है :

  • मयूरेश्वर मंदिर 
  • सिद्धिविनायक मंदिर सिद्धटेक 
  • बल्लालेश्वर मंदिर 
  • वर्धाविनायक मंदिर 
  • चिंतामणि मंदिर  
  • गिरजात्मज मंदिर 
  • विघ्नेशवर मंदिर 
  • महागणपति मंदिर 

पारम्परिक रूप से यात्रियों द्वारा तीर्थ यात्रा का शुभारंभ भगवान श्री मयूरेश्वर के दर्शन से होता है तथा क्रमानुसार भगवान श्री गणेश के दर्शन करते हुए भगवान श्री मयूरेश्वर के दुबारा दर्शन कर तीर्थ यात्रा का शुभांत किया जाता है।  

अष्टविनायक
श्री अष्टविनायक

यह भी मान्यता है की भगवान श्री गणेश कि यह अष्ट प्रतिमाए स्वयंभू है अर्थात यह सभी अष्ट प्रतिमाए प्रकृति द्वारा स्वयं निर्मित हुई  है।   

मयूरेश्वर मंदिर

यह मंदिर तीर्थयात्रा का प्रमुख मंदिर है। जिसे मोरेगांव गणेश का मंदिर भी कहा जाता है, क्यों की यह स्थान प्राचीन काल मे मोरों से प्रचुर मात्रा मे भरा हुआ था और इस गांव की आकृति भी मोर जैसी ही है, अतः इस स्थान का नाम मोरेगांव पडा, मोरेगांव जो की पुणे जिला का एक स्थान है, करहा नदी के किनारे स्थित है। इस मंदिर का निर्माण बहमनी शासन काल मे काले पत्थरों के द्वारा किया गया था। यह मंदिर गांव के मध्य मे स्थित है और इसके चारो कोनो मे मीनार है जो की इस मंदिर को दूर से देखने पर मस्जिद होने का भ्रम देता है। इस मंदिर की दीवार पचास फुट ऊंची है, जो की मुगलों से मंदिर की रक्षा के लिए बनवाई गयी थी। इस मंदिर के चार मुख्य द्वार है।  

यहाँ का मुख्य आकर्षण नंदी जी है, जिनकी मूर्ति हमेशा शिव मंदिर में ही देखने को मिलती है जो की अपने आप मे अनोखा है। एक कथा अनुसार जिस गाड़ी से इस मूर्ति को शिवमंदिर ले जाया जा रहा था वो गाड़ी मंदिर के द्वार पर टूट गयी और भगवान श्री नंदी जी की मूर्ति उस स्थान से हिलाए न हिली तो मूर्ति को प्रभु इच्छा जान वही पर स्थापित कर दिया गया। 

 

अष्टविनायक
भगवान मयूरेश व मयूरेश्वर मन्दिर 

भगवान श्री गणेश की मूर्ति यहाँ पर मोर पर बैठे हुए श्री गणेश की आकृति की है कहा जाता है इस स्थान पर भगवान श्री गणेश ने दैत्य सिंधु का वध किया था। यहाँ पे मूर्ति जिनकी सूंड बायीं दिशा मे मुड़ी हुई सर्पाकृति मे है, जो की इनकी रक्षा करती है। मूर्ति के दोनों ओर भगवान श्री गणेश की दोनों पत्नियां रिद्धि और सिद्धि उपस्ठित है।  

भगवान का श्री विग्रह रूप यहाँ पर अपने मूल रूप मे नहीं है कथानुसार मूल मूर्ति असुर सिंदुरासुर द्वारा दो बार नष्ट कर दी गयी, जिसे ब्रह्मा जी द्वारा पुनः स्थापित किया गया। विग्रह का मूल रूप बालू, लोहे और हीरे से बना हुआ था, जिसे पाण्डु पुत्रो द्वारा ताम्रपत्र से सुसज्जित किया गया। 

सिद्धिविनायक मन्दिर

भगवान श्री गणेश का यह तीर्थ स्थान अहमदनगर के सिद्धटेक नामक कस्बे में है, जो की पुणे सोलापूर हाईवे से ४८ किलोमीटर भीमा नदी के किनारे पर स्थित है। जिसका निर्माण कार्य महान शिव भक्त रानी अहिल्याबाई होल्कर के शासन काल मे हुआ था।  

प्राचीन कथानुसार भगवान श्री विष्णु ने यहाँ भगवान श्री गणेश की पूजा करके उनके आशीर्वाद से मधु और कैटभ नाम के दो असुरों का वध किया था।

ऐसा विश्वास है की यहीं पर भगवान श्री गणेश के दो प्रिय भक्त मोरया गोसावी जी और कडेगाओं के श्री नारायण महाराज को भक्ति ज्ञान की प्रप्ति हुई थी।

यहाँ भगवान की सूंड दायी तरफ है, जो की कठिन भक्ति से ही प्रसन्न होतें हैं ऐसा मान्यता है। रिद्धि और सिद्धि उनकी जंघा पर विराजित है।  


अष्टविनायक
सिद्धिविनायक सिद्धटेक 

बल्लालेश्वर मंदिर

बल्लालेश्वर मंदिर भगवान श्री गणेश के आठ मंदिरो में से एक है। यह एक मात्र ऐसा अवतार है, जिसे भगवान श्री गणेश के भक्त के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर पाली गांव में स्थित है जो की महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़  जिले में रोहा से २८ किलोमीटर की दूरी पर है।  

इस मंदिर का निर्माण कार्य १६४० में श्री मोरेश्वर विट्ठल शिंदकर जी के द्वारा कराया गया था। जो एक महान गणेश भक्त थे। इस मंदिर का जीर्णोद्धार १७६० मे सीमेंट के साथ शीशा मिला कर किया गया है। श्री के आकार मे निर्मित है। मन्दिर की विशेषता है, की यह पूर्वमुखी है अर्थात जब सूर्योदय हो तो सूर्य की पहली किरण गर्भगृह की मूर्ति पर ही पड़े। मंदिर मे एक घण्टी है, जिसे वसई और सस्ती मे पुर्तगालियों को हारा के चिमाजी अप्पा द्वारा वापस लाया गया था। 


अष्टविनायक
बल्लालेश्वर मंदिर

मन्दिर परिसर दो झीलों से घिरा हुआ है और चारों ओर से टाइलों से निर्मित है। मन्दिर का मुख्य आकर्षण मंदिर के दो गर्भ गृह है। प्रथम गर्भ गृह जिसमें मूर्ति है व द्वितीय बाह्य गर्भ गृह जिसमें चूहे के आकर की मूर्ति है जो भगवान श्री गणेश की मूर्ति के सामने हाथों में मोदक पकड़े हुए है। आठ उत्कृष्ट नक्शीदार स्तंभो द्वारा समर्थित हॉल, मूर्ति के समान ही ध्यान देने की मांग करता है, जो की एक सुरु के पेड़ की तरह उकेरी गयी सिँहासन पर बैठी है। यह आठ स्तम्ब आठ दिशाओ को दर्शाते हैं ।  

विनायक की मूर्ति एक पत्थर के सिंहासन पर विराजमान है, जिसकी सूंड बाई ओर मुड़ी हुई है। मूर्ति की आंखो और नाभि हीरों से जड़ित है।  

गणेश पुराण मे भगवान श्री गणेश की बल्लालेश्वर लीला का विस्तृत चित्रण उपासना खंड अध्याय २२ मे उत्क्रेरित किया गया है जो पाली ( प्राचीन नाम पल्लीपुर ) में घटित हुई थी।  

पल्लीपुर के एक व्यापारी थे। जिनका नाम कल्याण शेठ था। जिनका विवाह इंदुमती नाम की कन्या से हुआ था।  जिससे उन्हें बल्लाल नामक एक पुत्र हुआ। बल्लाल जैसे जैसे बड़ा हो रहा था। उसका मन भगवान श्री गणेश की पूजा और कीर्तन में ही लगा रहता था। वह अपने मित्रों के साथ जंगल मे एक पत्थर को भगवान श्री गणेश की प्रतिमा मान पूजा किया करता था। पूजा में समय लगने से बालक घर देर से पहुंचते थे, जिससे अन्य बालकों  के माता पिता चिढ़ जाते थे। एक दिन उन सब ने मिल कर कल्याण शेठ से इसकी शिकायत की। बल्लाल का पढाई मे ध्यान ना देने के कारण कल्याण शेठ पहले से ही उससे नाखुश थे। इस शिकायत ने तो उसमे घी का काम किया और वो गुस्से मे उबलते हुए जंगल में उस स्थान पर पहुंचे जहाँ वे बालक बल्लाल के साथ मिल कर श्री गणेश भगवान की पूजा कर रहे थे। उन्होंने श्री गणेश की पत्थर की मूर्ति को फेंक दिया और पूजा स्थल को तहस नहस कर दिया। सभी बच्चे डर के वह से भाग गए किन्तु बल्लाल अपनी पूजा में ही लगे रहे और तनिक भी विचलित नहीं हुए इस पर उनके पिता कल्याण शेठ ने उन्हें पकड़ लिया और तब तक पिटाई की जब तक की उनके कपडे खून से भीग नहीं गए। उस पर भी उनका मन नहीं भरा और उन्होंने उसे एक पेड़ से बांध दिया और उसे ताना मारा "अब हम देखेंगे की कौन सा भगवान उसकी रक्षा करता है।" और उन्होंने उसे मरने के लिए वहीं पर छोड़ दिया। 

अभी भी पेड़ से बंधे हुए बल्लाल ने अपने पिता को भगवान श्री गणेश का अपमान करने के कारण श्राप दे दिया। दर्द भूख और प्यास से भरे हुए उन्होंने भगवान श्री गणेश का जाप करना जारी रखा, जब तक की वो बेहोश नहीं हो गए। जागने पर उन्होंने भगवान श्री गणेश को सहायता के लिए बुलाना आरम्भ कर दिया। बल्लाल की भक्ति से प्रभावित भगवान श्री गणेश वह प्रकट हुए, उन्होंने उसे पेड़ से खोल दिया। श्री गणेश के दर्शन से बल्लाल की भूख प्यास दूर हो गयी और उसके घाव भी भर गए। भगवान श्री गणेश ने बल्लाल से वरदान मांगने को कहा तो बल्लाल ने विनती स्वरूप प्रार्थना की कि "मैं आपका अटल भक्त बनू और आप हमेशा इस स्थान पर रहे और आप अपनी शरण में आने वालो के आप समस्त दुखों का निवारण करे।" भगवान ने उसे मनवाँछित वरदान प्रदान किया और वही पड़े एक बड़े से पत्थर में समा गये। इसी मूर्ति को बल्लाल विनायक या बल्लालेश्वर विनायक के नाम से जाना जाता है।  कल्याण ने जिस पत्थर की मूर्ति को जमींन पर फेंका था, उसे धुंडी विनायक के नाम से जाना जाता है. यह एक स्वयंभू मूर्ति है और बल्लालेश्वर विनायक की पूजा से पहले इनकी पूजा की जाती है।  


वर्धाविनायक मंदिर

वर्धाविनायक मन्दिर, जिसे वरदविनायक मन्दिर भी कहा जाता है। यह मन्दिर महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के कर्जत और खोपोली के पास खालापुर तालुका में स्थित महाद गांव में स्थित है। मंदिर की मूर्ति १६९० ईस्वी मे बगल की झील मे डूबी हुई अवस्था मे पायी गयी थी। जिसकी पुनर्स्थापना पेशवा जनरल रामजी महादेव बिवलकर जी के द्वारा १७२५ ईस्वी मे किया गया था। मंदिर परिसर के एक तरफ एक खूबसूरत तालाब है। मंदिर की मूर्ति पूर्वाभिमुख हैं। जबकि भगवन श्री गणेश की सूंड बाई ओर मुड़ी हुई है। इस मन्दिर मे एक तेल का दीपक है, जिसके बारे में कहा जाता है की यह १८९२ से लगातार जल रहा है। इस मदिर में मूषक, नवग्रह और भगवान शिव का शिवलिंग भी मूर्ति स्वरूप उपस्थित है। मंदिर के चारो किनारो पर मंदिर के रक्षार्त ४ हाथियों की मूर्ति है।  

इस मंदिर की विशेषता है की भक्तजन इस मंदिर के गर्भगृह मे प्रवेश कर मूर्ति को श्रद्धांजलि और सम्मान दे सकते है। यू तो वरद विनायक के इस मंदिर में भक्त साल भर आते है परन्तु माघ चतुर्थी पर इस मंदिर मे भारी भीड़ देखी जा सकती है। 


अष्टविनायक
वर्धाविनायक मन्दिर व भगवान श्री वरदविनायक 

चिंतामणि मंदिर

थेउर का चिंतामणि मन्दिर हाथी के शीश वाले ज्ञान के देवता श्री गणेश जी को समर्पित है। जो की पुणे से २५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हवेली तालुका में भीमा नदी और मुला-मुथा नदी के संगम के पास स्थित है। यह मंदिर महाराष्ट्र के गणेश के आठ श्रद्धेय मंदिरो में एक सर्वाधिक प्रसिद्व है। हालांकि अष्टविनायक यात्रा में वर्धाविनायक के दर्शन के बाद थेउर मंदिर का निर्धारण किया गया है, परन्तु तीर्थयात्री अक्सर मोरेगांव के बाद थेउर की यात्रा करना पसंद करते है क्यों कि यह एक सुविधाजनक मार्ग है।  

मंदिर की विद्या बताती है कि कैसे भगवान श्री गणेश ने लालची राजा गण से भक्त, ऋषि कपिला के लिए इच्छा पूर्ति रत्न को पुनः प्राप्त किया और कैसे उन्होंने भगवान ब्रम्हा के बेचैन मन को शांत किया, जिन्होंने धुर मे उनका ध्यान किया था। मन्दिर गणपति संत मोरया गोसावी से जुड़ा हुआ है। हालांकि माना जाता है की मंदिर का अस्तित्व प्राचीन काल से ही हैं परन्तु मंदिर की वर्तमान संरचना उसके या उनके वंशजों द्वारा कराया गया हैं। चिंतामणि मन्दिर तत्कालीन पेशवा शासको के लिए आध्यातमिक चुम्बक था, विशेष रूप से माधवराव प्रथम (१७४५-१७७२ ) ने मंदिर की संरचना का जीर्णोद्धार और परिवर्धन किया। 


अष्टविनायक
चिंतामणि मन्दिर थेउर व भगवान चिंतामणि विनायक 

उत्तर दिशा मे स्थित मंदिर का द्वार पैमाने मे अपेछाकृत छोटा है, हालांकि चिंतामणि-गणेश का केन्द्रीय चिन्ह पूर्व की ओर है। मंदिर मे एक लकड़ी का सभा-मंडप है, जिसका निर्माण माधवराव प्रथम ने करवाया था। मंडप के मध्य में एक काळे पत्थर का फव्वारा भी है। श्री गणेश को समर्पित केंद्रीय मन्दिर के अलावा, मन्दिर परिसर में कई छोटे मन्दिर है जो भगवान सदाशिव, विष्णु-लक्ष्मी और हनुमान जी को समर्पित है। मन्दिर के पीछे पेशवा वाड़ा (पेशवा महल) है। जो कभी माधवराव का निवास स्थान था। आज मन्दिर की दैनिक गतिविधियों का सञ्चालन इसी स्थान से किया जाता है।  

मूर्ति का शीश व नेत्रों मे हीरे लगे तथा सूंड बायीं ओर मुड़ी हुई है। 

गिरजात्मज मंदि

ऐसा माना जाता है की देवी पार्वती ने इसी स्थान पर भगवान श्री गणेश को पुत्र स्वरूप प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। इसलिए यहा पर स्थापित यह स्वयंभू प्रतिमा गिरिजा आत्मज (गिरजात्मज) कहलाती है। यह मन्दिर बौद्ध मूल की १८ गुफाओ के एक गुफा परिसर के मध्य मे स्थित है। यह मंदिर अष्ठम (आठवीं) गुफा है। भगवान श्री गणेश को यहाँ गुफा लेनी के नाम से भी जाना जाता है। 

मंदिर का निर्माण एक ही पत्थर की पहाड़ी को तराश कर बनाया गया है, जिसमे ३०७ सीढिया है। मंदिर मे वह्रद हॉल है, जिसमें कोई सहायक स्तम्भ नहीं है। मंदिर की लम्बाई ५३ फीट व चौड़ाई  ५१ फीट और उचाई ७ फीट है।


अष्टविनायक
गिरिजा आत्मज मन्दिर 

मूर्ति का मुख उत्तर की ओर है और इसकी सूंड बाई ओर है। इस मन्दिर की विशेषता है की यहाँ पूजा मंदिर के पीछे की ओर से की जाती है क्यों की मंदिर का मुख दक्षिण की ओर है। यह मूर्ति बाकि अष्टविनायक मूर्तियों से इस अर्थ मे थोड़ी भिन्न है कि यह मूर्तियों की तरह बहुत अच्छी नक्काशी नहीं की गयी है। इस मूर्ति की पूजा कोई भी कर सकता है। मंदिर मे बिजली का एक भी बल्ब नहीं है। मंदिर का निर्माण कुछ इस तरह से किया गया है की दिन के समय यह हमेंशा धुप से जगमगाता रहता है। 

मंदिर नारायणगांव से १२ किलोमीटर दूर स्थित है, जो की पुणे नासिक हाईवे से लगभग ९४ किमी दूर है। निकटम रेलवे स्टेशन तळेगाव है।  

विघ्नेशवर मंदिर

ओजर का विघेंश्वर मंदिर या विघ्नहर गणपति का मंदिर भारत के महाराष्ट्र में गणेश जी के आठ पूजनीय मंदिरो में से एक है। यहाँ पूजा किये जाने वाले गणेश रूप को "बाधाओं के भगवान" के रूप मे भी जाना जाता है। 

ओजर पुणे से लगभग ८५ किमी, पुणे-नासिक राजमार्ग से दूर और नारायणगांव से लगभग ९ किमी उत्तर मे कुकड़ी नदी के तट पर येडागाव बाँध के पास स्थित है।  

हालांकि ओजर को अष्टविनायक तीर्थयात्रा मे सातवें पड़ाव के रूप में जाना जाता है, परन्तु तीर्थयात्री इस तीर्थ का चुनाव पांचवे तीर्थ के रूप मे करते हैं क्यों की यह सुविधाजनक मार्ग है।  

मुद्गल पुराण, सेकंड पुराण और तमिल पुराण के अनुसार राजा अभिनन्दन ने एक यज्ञ किया, जिसमे उन्होंने देवेंद्र इंद्र को कोई भेंट नहीं दी। क्रोधित इंद्र ने काल को आज्ञा दी की यज्ञ को नष्ट कर दे।  काल ने असुर विग्ना का रूप ले यज्ञ और होम विधि का अंत कर दिया परन्तु वो अपने इस कृत्य के बाद भी रुका नहीं और ब्रम्हांड मे तबाही मचाते हुए ऋषिगणों को भी यज्ञादि करने नहीं देने लगा। तब ऋषिगणों ने मिलकर भगवान शिव और ब्रम्हा जी से प्रार्थना की वह इस भयावह असुर का अंत करे।  तब उनके मार्गदर्शन मे सबने भगवान श्री गणेश की वन्दना की, भगवान श्री गणेश ने तब असुर विघ्ना से युद्ध किया जिसमे वह पराजित हुआ और उसने श्री गणेश जी को वचन दिया की वो केवल उन्ही स्थानों पर निवास करेगा, जहाँ उनकी पूजा उपासना नहीं होगी और उन्ही लोगो को परेशान करेगा जो श्री गणेश की पूजा करने मे विफल रहेंगे। साथ ही साथ उसने भगवान श्री गणेश से प्रार्थना की वो उस का नाम अपने नाम से पहले लगाकर उसे कृतार्थ करे जिससे उसे हमेशा हमेशा याद रखा जाये।  भगवान ने प्रसन्न हो कर उसे ततास्थु कह धन्य कर दिया। तब ऋषिगणों ने भगवान की छवि को विघेंश्वर रूप मे प्रतिष्ठित कर उनकी प्रार्थना इत्यादि की तब से यह स्थान भगवन श्री गणेश के प्रमुख धार्मिक स्थल के रूप मे जाना जाता है। 


अष्टविनायक
विघेंश्वर मंदिर ओजर व भगवान श्री विघेंश्वर विनायक 

पूर्व की ओर मुख वाले मंदिर मे एक विशाल प्रांगण, एक प्रवेश द्वार, मूर्तिकला और भित्तिचित्र है।  यहा दो बड़े पत्थर द्वारपाल की मूर्तियों और चार संगीतकारों की पंक्ति के साथ बड़े द्वार से घिरा हुआ है। दो बड़े पत्थर दीपमाला साथ नुकीले मेहराबो के एक सकरे गलियारे के सामने प्रवेश द्वार के सामने स्तिथ है।  द्वार के दोनों ओर ध्यान के लिए दो कक्ष है। केंद्रीय कक्ष में प्रवेश के लिए तीन द्वार है जिनमे तरासे हुए पार्श्व खम्बे और लिंटर्स है।  मंदिर मे दो हॉल है।  प्रथम हॉल मे ढुंडीराज गणेश की प्रतिमा है।  द्वितीय कक्ष मे एक श्वेत रंग की मुशिका है। मन्दिर की दीवार मूर्ति और भित्ति चित्रों से भरी हुई है। गर्भगृह का शिखर स्वर्णपत्रों से ढका हुआ है।  


गणेश जी की मूर्ति पूर्वाभिमुख है तथा उनकी पत्नी रिद्धि सिद्धि इनके दोनों बाजु मे पीतल की छवि के रूप मे है। मूर्ति की सूंड बायीं ओर मुड़ी हुई है। इनका माथा पन्ना और आंखे व नाभि हीरे जड़ित है। 

महागणपति मंदिर

मान्यतानुसार यहाँ त्रिपुरासुर से लड़ने के पूर्व भगवान शिव ने भगवान श्री गणेश की पूजा की थी। मंदिर का निर्माण भगवान शिव के द्वारा किया गया था और उन्होंने जिस शहर की स्थापना की उसे मणिपुर कहा जाता था, जिसे अब रंजन गांव के नाम से जाना जाता है। 

रंजन गांव जो भगवान गणेश से सम्बंधित आठ किदवंतियों का जश्न मनाता है। इस मन्दिर के गणपति की मूर्ति का दान रंजन गांव के ही एक स्वर्ण व्यापारी परिवार के द्वारा किया गया था। मन्दिर का निर्माण ९वीं से १०वीं शताब्दी के बीच हुआ था। रंजन गांव शिरूर से २१ किमी पहले है और पुणे से यह ५० किमी पड़ता है। 

अष्टविनायक
महागणपति मन्दिर व भगवान श्री महागणपति विनायक 
मूर्ति पूर्वाभिमुख है। जो की एक चौड़े मस्तक वाली क्रॉस पैरो की स्थिति में बैठी हुई है, जिसकी सूंड बायीं ओर है। ऐसा कहा जाता है की मूल मूर्ति तेहखाने मे छुपी हुई है, जिसमे १० सूंड और २० हाथ है और इसे महोत्कट कहा जाता है। हालांकि मन्दिर आधिकारिक रूप से ऐसी किसी भी मूर्ति के अस्तित्व से इंकार करता है।

मन्दिर का मुख पूर्व की ओर है। इसमें एक भव्य मुख्य द्वार है। जो की जय और विजय की दो मूर्तियों द्वारा संरक्षित है। मन्दिर को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है की दक्षिणायन के दौरान सूर्य की सीधी किरणे मूर्ति पर ही पड़ती रहती है। महागणपति की मूर्ति को कमल के पुष्पासन पर बैठा हुआ चित्रांकित किया गया है जिनके दोनों ओर उनकी पत्नी देवी  रिद्धि सिद्धि विराजित है। 









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11 टिप्पणियाँ

  1. No body is providing such type usefull information.....
    But by this blog..

    I am getting very ancient information..

    Brijendra

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  2. Very entertaining topic. We must spread ancient knowledge across word wide so that people must be know the Power of Indian culture and traditions.. Jai Shri Ganesha

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  3. Keep continuing Best work and enlighten the Hindus..
    Excellent Presentation..

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